शुक्रवार, 30 जून 2017

वरिष्ठ साहित्यकार संतोष श्रीवास्तव की कहानी अमलतास तुम फूले क्यों ग्यानोदय और पुष्पगंधा में प्रकाशित और लोकप्रिय हुई।
अब यह वॉट्सएप समूह विश्व मैत्री मंच में प्रकाशित होकर लोकप्रियता के नये मुकाम हासिल कर चुकी है।


अमलतास तुम फूले क्यों
संतोष श्रीवास्तव
      ‘महिला सुझाव मंचसंस्था का उद्घाटन शकुन सहाय के हाथों होना था| अभी मैं अपनी सीट पार बैठी ही थी कि कुणाल का फोन आ गया| रिसीव करने के लिए मैं हॉल से बाहर निकल आई|
      “क्यों बता देती हो कनु पापा को सब कुछ? तुम्हारा फ़ोन आते ही वे कितने डिस्टर्ब हो गये| ज़िद्द करने लगे..... कनु का फोन था अभी टी.वी. ऑन करो और मुझे तकियों के सहारे बैठा दो| शकुन के प्रोग्राम की लाइव टेलीकास्टिंग है|”
      मेरे अंदर भी कुछ टूट गया शायद गोविन्द सहाय को लेकर या शायद कुणाल के प्रति मेरे मन में जड़ें जमा रहे एहसास को लेकर.....
      “सॉरी कुणाल..... मेरा इरादा उन्हें चोट पहुँचाने का न था| मैंने सोचा था अगर उन्हें पल भर की ख़ुशी मिल सकती है तो क्यों न पहल करूँ|”
      “हाँ कनु..... मैं भी यही सोचता हूँ..... और वे खुश भी हुए थे मम्मी को देखकर, उनकी आवाज़ सुनकर..... बाद में उनके आँसू निःशब्द बहते रहे|”
कुणाल की आवाज़भी भीग गई थी..... मेरा मन भी| गोविंद सहाय ने खुद को पूरा ख़र्च कर डाला था शकुन के लिए..... इसीलिए बार-बार टूटे हैं वे..... ढहे हैं वे.....
मैं लॉन में लगे अमलतास के छतनारे दरख़्त के नीचे रखी पत्थर की बैंच पर बैठ गई| हॉल में माइक पर संचालक की आवाज़ यहाँ तक आ रही थी शकुन सहाय यानी हम सबकी ताई आ चुकी हैं|आप सभी जानते हैं गाँव, क़स्बों, बीहड़ों की ख़ाक छानकर शकुन सहाय ने महिलाओं को जागरूककिया है और इस अभियान में अपने विद्रोही तेवरों की वजह से वे हम सबकी चहेती हो गई हैं..... आज.....
डूब गई है आवाज़| लॉन पर फैले सूखे पत्ते हवा में करवट लेने को बेचैन थे| कैसे होंगे गोविंद सहाय? अपने हाथों से सरकती ज़िन्दग़ी के सिरे को रेशा-रेशा होते खुली आँखों देख रहे होंगे| काले गहरेसमुद्र पर हलके पीले बादलों की तरह उन अँधकार भरे दिनों की यादें थम गई होंगी उनकी आँखों में| ..... ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तनहा| काफिला साथ और सफ़र तनहा|
क्या गुनाह था उनका? यही कि इंजीनियरी की पढ़ाई ख़त्म कर वे शकुन को दिल दे बैठे थे| उन्होंने टूट कर चाहा शकुन को| तमाम विरोधों के बावजूद उन्होंने मंदिर में जाकर शकुन की माँग में सिन्दूर भर दिया था| चिन्गारी भड़ककर शोले उगलने लगी| गोविंद जहाँ पेइंग गेस्ट थे उस फ्लैट के सामने की गली में चाय की दुकान पर पड़ी बैंचपर शकुन के दोनों भाईछुरे की नोक गड़ाकर बैठ गए किफ़्लैट से बाहर आते ही काट डालेंगे दोनों को|..... “उसकी ये मज़ाल कि सामंतों की इज़्ज़त दाँव पर लगा दे? भाईयों की आँखें शोले सी लग रही थीं लेकिन न फ्लैट का दरवाज़ा खुला, न मेज पर से चाकू हटा..... यार दोस्तों के समझाने पर वे दोनों घर जाने के लिए मुड़े ही थे कि गोविंदशकुन को साईकल परबैठा कर वाकोला में शेखर की चॉल में ले आये| वैसे भी गोविंद समेत चार लड़के बतौर पेइंग गेस्ट रूम शेयर कर रहे थे| वहाँ शकुन को लेकर रहना नामुमकिन था| ..... “तू दो महीने आराम से चॉल में रह यार..... तब तक कहीं बंदोबस्त हो ही जाएगा| मैं बनारस से दो महीने बाद लौटूँगा|” शेखर का फोन था बनारस से|
उसरातचॉल के फर्श पर अख़बार बिछाकर जब दोनों लेटे तो गोविंद की आँखें छलक आई थीं| सामंती घराने की शान शौकत छोड़कर शकुन इस हाल में उनके साथ! वो जो अब उनकी शरीके हयात है, वो जो तमाम रुसवाईयों के बावजूद उनके साथ है|भींच लिया गोविंद ने शकुन को अपने सीने में|
इस वक्त सिर्फ प्यार है मेरे पास तुम्हें देने को|”
और प्यार है तो हौसला है मेरे पास..... तुम साथ हो गोविंद..... तो फिर क्या ग़म किसूरज रोशनी नदे..... हम जुगनुओं की रोशनी में अपनी तकदीर खुद लिखेंगे..... क्या तुम भी सुन रहे हो?”
क्या?”
प्यार के अदम्य साहस की हुंकार..... मैं सुन रही हूँ| मैंने अपने जीवन में इसे पहली बार सुना है|” गोविंद चॉल की पीली मरियल सी रोशनी में लाख दिलासाओं के बावजूद देख पा रहे हैं अपने प्यार की बुनियाद पर रखा ज़िन्दगी का पेचीदा महल..... एक ताजमहल जो शीशे से बना था और पत्थरों की दीवार से सट कर खड़ा था| उन्होंने अपनी हथेलियाँ फैलाईं..... हथेलियों पर पसीने की चिपचिपाहट भीतर तक महसूस की| वे कमज़ोर क्यों होरहेहैं?
चॉल में जैसेअजूबाआ गया हो| पास ही कुकरमुत्तों सी फैली झोपड़पट्टी के बच्चे झाँक-झाँक कर शकुन को देख रहे थे| शकुन बाहर निकल आईं – “पढ़ते हो?” बच्चों का झुंड खी-खी कर हँस पड़ा| धीरे-धीरे बच्चे उनकी देहरी से कोठरी में अंदर आने लगे| शकुन उन्हें पढ़ाने लगीं| माँओं के झगड़े फ़साद निपटाने लगीं| शकुन को बहुत मज़ा आता इन कामों में..... सब कुछ बहुत दिलचस्प लगता| वे अपने होने का अर्थ जानती हैं..... अगर सार्थक जीवन जीना है तो सार्थकता के सुर पहचानने होंगे..... उन अनसुनी आवाज़ों को सुनना होगा जो संसार के शोर में दब जाती हैं|
नवम्बर के गुलाबी जाड़ों में शेखर अपनी पत्नी उषा को लेकर लौटा| एक ही कमरे की खोली..... किराए का घर मिलना सबसे बड़ी फ़जीहत संकोच में डूब गये गोविंद और शकुन| शेखर बाज़ार से मटन ले आया..... साथ में दारू की बोतल..... भाभी, आज आपके हाथ से बना मटन खाना है..... यार गोविंद मुझे तो इस छोटी सी कुठरिया में चार लोगों के समाने से ज़्यादा फिकर तेरी हो रही है| भाभी तो बन गई है सोशल वर्कर..... अब तेरा क्या होगा?”
गोविंद ने दोनों हाथ ऊपर किये – “वही होगा जो मंज़ूरे खुदा होगा|”
वह एक रात हँसी, ठहाकों में बीती तो फिर हर रात गुज़रनी आसान हो गई| शादी के बाद शकुन का ही घर नहीं छूटा था गोविंद का भी छूट गया था| माँ बाप ने ऐलान कर दिया था..... जिसने ज़िन्दग़ी के इतने बड़े फैसले में हमें दरकिनार कर दिया हम उसे अपनी ज़िन्दग़ी से दरकिनार करते हैं|”
सूर्यास्त के बाद सुरमई अँधेरा समँदर को अपनी गिरफ़्त में ले रहा था| वे दोनों किनारे पर बिछी रेत पर टहल रहे थे| पैरों के नीचे रेत में जीवन की धड़कन थी| शकुन देख रही थी..... गोविंद के चेहरे की संजीदगी..... कहना चाहती थी..... भूलजाओसब कुछ को गोविंद..... केवल प्यार को जियो| उस मधुर छुअन को जो हम दोनों के क्लांत जीवन में अमृत बन बरसी है..... आओ जितना भर सकते हैं भर लें अपनी अंजलि में इस अमृत बारिश को.....
जाना चाहा था गोविंद ने अँधेरी एम आई डी सी के हॉस्पिटल क्वार्टर्स में..... पागल हो गया है क्या? कितनी दूर पड़ेगा तेरा ऑफ़िस?”
तो?”
तो क्या? लोन के लिए एप्लाई कर और बढ़िया सा फ़्लैट ख़रीद ले|”
उषाऔर शकुन ने भी शेखर की हाँ में हाँ मिलाई| गोविंदने शकुन की वो अनकही आवाज़ सुनी| ज़िन्दग़ीको सही अर्थों में जीने की आवाज़..... शरीर को ढोना नहीं है मृत्यु पर्यंत, जीना है..... जीना है ज़िन्दग़ी को प्यार करते हुए..... गोविंद का मन उमड़ा और बह चला शकुन की ओर..... शकुन जो अब उसकी आराधना भी है आराध्य भी जीवन भी है निमित्त भी.....
चारों तरफ़ धुआँधार बारिश थी| तेज़ हवाएँ बारिश की फुहार को हर तरफ़ उड़ाये लिए फिर रही थीं और नदी में पानी के तेज़ रेले की आवाज़ नदी के जोश का एहसास दिला रही थी| श्रावण मास की यह कैसी कठिन रात थी|दोने में दीप जलाए माँ हथेली की ओट किसे प्रतीक्षारत थी..... कब हवाएँ थमे कब दीप नदी में प्रवाहित हो..... यह दीप गोविंद के अफ़सर होने का..... बँगले, गाड़ी..... क्या क्या, उफ़ आँखें मूँदे हैं माँ.....
गृहप्रवेश का मुहूर्त गुड़ी पाड़वा का निकल रहा है|” शकुन ने पंडित जी के फोन को कट करते हुए कहा..... गोविंद शून्य में ताक रहे थे..... कहाँ हो हुज़ूरऽऽऽ.....
गोविंद ने पलक झपकाई..... जब से लोन लेकर फ़्लैट ख़रीदा है बहुत डिस्टर्ब हैं गोविंद..... माँ का सपना सच हो रहा है और माँ नहीं हैं पास में..... कैसे, क्या करें कि माँ साथ हों| वो देख रहे हैं शकुन का उत्साह..... नये घर के लिए किस रंग के परदे होंगे..... सोफ़े की गद्दियाँ, कुशन, चादरें..... शो केस..... गृहप्रवेश के दिन का भोज..... शेखर और उषा भी जुटे हैं..... पार्टी में क़रीबी दोस्त ही आएँगे और भाभी आप मेहंदी लगाएँगी उस दिन और महाराष्ट्रियन नथ पहनेंगी|”
शकुन हँसने लगी – “नथ..... क्यों भई?”
आपको अभी तक पता क्यों नहीं चला कि गोविंद को वैसी मोती वाली नथ बहुत पसंद है|”
हम क्या जानें..... गले, नाक, कान सूने ही अच्छे लगते हैं गोविंद को|”
अबतुम्हें गहनों की क्या ज़रुरत? तुम तो वैसे ही गज़ब ढाती हो|”
क़सम से..... इस बात पे आप हलके से सिर हिलातीं और नथनी का मोती हाले रे..... आई मीन हिलता तो क्या गज़ब ढाता|”
उषा चाय बना लाई थी| गोविंद भी अब सहज थे|
कुणाल के जन्म के बाद शकुन को मायके में प्रवेश मिल गया| मौसम जैसे गमक उठा हो| हर फूल के खिलने की ख़बर लेकर हवाएँ शकुन के घर के खिड़की दरवाज़ों पर दस्तक देने लगीं| गोविंद ने माँ को बतलाना चाहा..... माँ, तुम दादी बन गई हो| फोनपिताजी ने उठाया..... पापा, आप बाबा..... लेकिन उधर से फोन कट गया| गोविंद का आहत मन टीस उठा| वे बुझने लगे| चरम तक बुझ गये| वे बुक्का फाड़कर रोना चाहते थे पर ज़िन्दग़ीके तक़ाज़ों ने उन्हें रोने न दिया| वे बुझे ज़रूर पर अपने अंदर समाई आग की राख को उन्होंने गरम रखा| यह बात दीगर है कि बाहर न धुआँ था न लपट|
होलिकाष्टक लगते ही शकुन ढेर सारे पकवान बनाकर डिब्बों में भरकर गोविंद के साथ पहुँच गई गोविंद के पैत्रिक निवास| गोविंद की गोद में दस महीने का कुणाल था|
किसलिए आए हो? कोईक़सर बाकी रह गई क्या?”
हम कसूरवार हैं..... हमें क्षमा कर दीजिए पिताजी|”शकुन उनके चरणों पर गिर पड़ी| उन्होंने पैर पीछे खींच लिए| कुणाल की किलकारियाँ सुन माँ का दिल पिघल गया| वैसे भी औरत का दिल मोम का होता है, ज़रासी आँच दिखाओ पिघलने लगता है|
दिन भर की मान मनौवल से पिताजी भी नरम पड़े| मान तो रहे हैं दोनों अपनी ग़लती..... बच्चों से ग़लती हो ही जाती है| उन्हें तो अपना बड़प्पन रखना चाहिए|
नहीं..... सब कुछ सामान्य नहीं हुआ है| पिताजी की ख़ामोशी चीख़ रही है..... माँ का पिघलना सुलगते रहने का सफर तय कर रहा है| गोविंद ने महसूस किया है उस पल के हज़ारवें हिस्से को जो साक्षी है कि माँ पिताजी के मन में चुभा काँटा और गहरे धँसा है| वे उस पल के नन्हे टुकड़े को जी कड़ा करके नँगी आँखों से पूरा का पूरा देख रहे हैं|..... फिर उसी पल से शकुन का चेहरा झाँका है..... वे हाथ ऊपर कर ईश्वर से दुआ माँगते हैं..... अपने प्यार के लिए दुआ जो उम्र भर का साथ निभा ले|
रंग से सराबोर शकुन हाथ में गुझिया और भाँग का गिलास लिए सामने है – “लो मेरे भोलेनाथ|”
तुमले रही हो क्या भाँग.....
पीरही हूँ..... जिज्जी ने क़सम दी थी..... इसलिए|” गोविंद ने देखा गोबर लिपे आँगनमें जगह जगह रंग गुलाल बिखरा है..... भौजी इशारा कर रही हैं – “आओ न देवर जी.....
पिताजी ने शाम को कुछ चुनिंदा लोगों को दावत दे डाली| होली मिलन की भी और नई बहू के आगमन की भी| सारी रस्मों की अदायगी बाक़ायदा हो रही है| शकुन से खीर का कलछुल छुआया गया है..... नई बहू के हाथ की पहली रसोई| नईबहू जो अब माँ है कुणाल की..... गोविंद के अंदर का पिता मुस्कुराए या रोये?.....
केतकी के जन्म के बाद शकुन का मन मुश्किल से घर में लग रहा है| जैसे तैसे कुछ साल निकले| शकुनसामाजिक कार्यों में हिस्सा लेने के लिए बेताब थी| एक तो उसका रुआबदार व्यक्तित्व और फिर शब्दों में इतना अपनापन कि सामने वाले को लगे जैसे वह उसके लिए ही इस दुनिया में आई है|वह जो भी काम हाथ में लेती उस पर स्वीकृति की मोहर लग जाती| अब उसने अपना अलग एन जी ओ स्थापित कर लिया था जिसके सचिव पद के लिए चुने गये शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी नरेन्द्र चौहान के सम्मान में शकुन ने एक पार्टी रखी| पार्टी में मुम्बई की कुछ नामी हस्तियाँ शामिल हुईं| दूसरे दिन अखबारों में इसकी ख़बर छापी गई| शकुन की संस्था अब चर्चा का विषय थी| शकुन और नरेन्द्र की नज़दीकियाँ भी अब चर्चा का विषय थीं| शुरूआती दौर में गोविंद पर इन चर्चाओं का कोई असर नहीं हुआ पर हालात चुगली कर रहे थे|अब की बार मानसून बाहर नहीं बरसा गोविंद के अंदर बरसा..... पूरे अरब सागर की शक्ल में..... और लहरें उनका दम घोंटने पे आमादा थीं| कहाँ जाएँ वे? जहाँ भी जाएँगे ये मानसून और लहरें तो साथ जायेंगी ही..... तब?
लेकिन शकुन के लिए मानसून रोमांटिक था| भीगी ठंडी हवाएँ उसके बालों सेअठखेलियाँ कर रही थीं| भीगे बालों से पानी की बूँदें चू रही थीं| चेहराबिना बिंदी-काजल के धुला-धुला सा जैसे बारिश की रिमझिम में भीगा गुलाब.....
अरे नरेन्द्र, अचानक?” दरवाज़ा खोलते ही खिल पड़ी थी शकुन|
माशाअल्लाह!
क्या?”
नहीं, कुछ नहीं..... इधर से गुज़र रहा था तो सोचा.....शकुन दो गिलासों में कोल्ड ड्रिंक ले आई..... अगर आप कहते कि आज मिलने का मन था हमसे तो अच्छा लगता|” नरेन्द्र की आँखों में शकुन का अक्स था| शकुन जैसी शख्सियत को लेकर वह बहुत उलझ जाता था..... आजशायद सुलझाव का दिन था| ख़ामोशी तारी थी| हवा चलती तो परदे पे टँगीनन्ही-नन्ही घंटियाँ रुनझुना जातीं| कोल्ड ड्रिंक ख़त्म कर नरेन्द्र संस्था से जुड़ी बातें करता रहा| कुणाल तो रात नौ बजे कोचिंग से लौटता है लेकिन केतकी और गोविंद के लौटने का समय हो गया था| शकुन अनमनी हो उठी|
देखो, सुबह से हथेली खुजा रही है| अब मुहावरा बदलना पड़ेगा| पैसे नहीं प्रिय मिलता है हथेली खुजाने से..... लो चूम लो ज़रा|”
और नरेन्द्र ने बड़ी बेबाकी से हथेली शकुन के होठों पर रख दी| शकुन के होंठ काँपे थे लेकिन हथेली का दबाव भारी था| एक नागवार लम्हा गोविंद के घर में दाख़िल हो चुका था और सब कुछ लड़खड़ा उठा था|
बड़े बोझिल थे वे चार साल| शकुन और नरेन्द्र के रिश्तों की खलबलाहट ने गोविंद का दिल चाक़ कर दिया था| वे खुद को खँगालने लगे| कहाँ चूक हो गई शकुन को समझने में| ये कैसे हुआ? क्यों हुआ? वे भीतर ही भीतर छीजने लगे|उनके मन में रोपे प्यार के हरे भरे दरख़्त की जड़ों को दीमक आहिस्ता आहिस्ता खोखला करने लगी| पहलेफूल जले गोविंद की रिपोर्ट में डायबिटीज़ कदम बढ़ा चुकी थी| फिर डालियाँ गिरीं..... हाई ब्लड प्रेशर, बेड कोलेस्ट्रॉल हाई लेवल पर और पिछले कुछ दिनों से डिप्रेशन भी..... पूरा दरख़्त धराशायी हो चुका था| वे खुली आँखों देख रहे थे अपनी बरबादी का मंज़र| वे मरना चाहते थे| उन्होंने सारी रिपोर्ट्स छुपा लीं| लेकिनकुणाल की नज़रों से कुछ छिपा न था|वह गोविंद का मानो प्रतिबिम्ब ही था| स्वभाव से संजीदा और ज़िन्दग़ी की हर धड़कन पहचानने वाला|वह गोविंद को डॉक्टर के पास ले गया| ढेरोंदवाईयाँ, परहेज़..... ताक़ीद – “किसी भी तरह के तनाव, अप्रिय वातावरण से दूर रखें इन्हें..... अभी शुरुआत है, गंभीर रूप लेते देर नहीं लगेगी|”
घर लौटते ही वे बिस्तर पर ढह गये| अन्दर ही अन्दर कितना कुछ ढह गया था| रात को शकुन लौटी..... क्या हुआ? गोविंद.....
गोविंद ने शकुन की ओर देखा, हलके से मुस्कुराए| तीर चलाकर पूछती हो क्या हुआ? घायल परिंदे को कम-से-कम पंख फड़फड़ा लेने की आज़ादी तो दो|”
मम्मी, पापा बीमार हैं|” कुणाल ने औपचारिक सी सूचना दी|गोविंद ने डीटेल्स बताने को मना किया था| शकुन ने टेबिल पर रखी दवाईयाँ, प्रेस्क्रिप्शन देखा – “इतना कुछ हो गया गोविंद और मुझे बताया तक नहीं|”
क्याफ़र्क़ पड़ता अगर बता देता.....कहना चाहा गोविंद ने..... कहना चाहा कि बहुत नाजुक होता है मोहब्बत का रिश्ता इसमें बेवफ़ाई को वफ़ा साबित करने के लिए किसी भी तर्क की गुंजाइश नहीं..... पर गोविंद को तो लब सीने थे सो सी लिए.....
गोविंद की ख़ामोशी ने कुणाल को भीतर तक झँझोड़ डाला| वहतुरन्त चला गया वहाँ से|
उससाल एक साथ तीन घटनाएँ घटीं| बहुत कोशिशों के बाद गोविंद को बैंगलोरतबादले की रज़ामंदी मिल गई| केतकी दो दिनों से घर से ग़ायब थी यह कहकर कि वह सहेलियों के साथ गोवा घूमने जा रही है लेकिन गोवा पहुँचकर उसने माइकल से कोर्ट मैरिज कर ली और एक संक्षिप्त सी सूचना शकुन को दे दी|अब अहसास हुआ है इस तरह की करतूतों का माँ बाप पर क्या असर होता है| ऐसा ही कचोटा होगा माँ पिताजी का दिल..... ऐसे ही रातों की नींद दिन का चैन खो चुके होंगे वे..... ऐसे ही रुसवाई की वजह से ज़माने को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे होंगे वे जब उन्होंने गोविंद की शादी की सूचना सुनी होगी| तड़प उठे थे गोविंद..... देर तक रोते रहे थे और तभी ख़बर आई माँ सीरियस हैं| तो क्या माँ भी साथ छोड़ रही हैं?जिन्होंने अपने खून, माँस, पूरी ऊर्जा से उन्हें जन्म दिया..... उसके पहले तो कहीं न थे वे..... माँ के स्नेह, तप और समर्पण की गर्मी पा वे नन्ही कोंपल बन फूटे थे और आँखें मिचमिचा कर देखा था..... इतने बड़े विश्व में केवल माँ को.....लेकिन वे उन आवाज़ों का क्या करें? वे आवाज़ें जो उनका पीछा नहीं छोड़ रही हैं..... वे आवाज़ों के गूँजलक में गिरफ़्त हैं..... क्यों करायातबादला बैंगलूर का? बसा बसाया घर अपनी ज़िद्द में उजाड़ रहे हो? नहीं बाँध पाये न शकुन का मन खुद से..... अब ये पलायन? नहीं फर्ज़ अदा कर पाये केतकी के प्रति अपना..... क्यूँ भटकी वह? एक विजातीय से शादी करने को क्यों मजबूर हुई वो..... हाँ, उसने देखा होगा शकुन का भटकाव..... उसने देखा होगा उनकी निरुपायता..... क्या करें वे? कैसे इन आवाज़ों से पीछा छुड़ाएँ? कैसे निराकार हो जाएँ..... माँ..... हाँ माँ ही हैं जो उन्हें बचा सकती हैं| वे गुण और सूत्र के रूप में तब्दील होकर उनके गर्भ में बैठ जाएँ..... वहाँ तो कुछ भी सुनाई नहीं देगा न! माँ का गर्भ होगा और वे गर्भ की दीवारों में कितनी शांति पाएँगे?..... उनमें है कूबत कि वे अपने धड़कते दिल को थाम लें ताकि उनकी धड़कनें उनके हिसाब से धड़कें और वक़्त उन धड़कनों के हिसाब से आगे बढ़े|
पापा, टिकट कन्फ़र्म हो गई हैं|” सिरहाने कुणाल था| कुणाल ठीक उस पॉइंट पे उनके सामने आ जाता है जब दर्द हद से गुज़र जाता है| कुणाल की हथेली पे उनके लिए दवा और पानी का गिलास है|
एक बात कहूँ पापा..... केतकी को माफ़ कर दीजिए| उसका चुनाव अच्छा है| माइकल डिज़र्व करता है केतकी के लिए..... करोड़पति, खुद का बिज़नेस..... बेहद शिष्ट.... शालीन|”
उनकी आँखें मूँदने लगी हैं| अपनी प्राणों से प्यारी बेटी को वे क्यों नहीं करेंगे क्षमा..... ज़रूर करेंगे क्षमा..... पहले उन्हें महसूस तो करने दो, पोर पोर टूटने तो दो, क़तरा क़तरा बिखरने तो दो..... जैसे माँ बिखरी हैं उनके लिए..... जैसे पिताजी टूटे हैं उनके लिए|
पल, दिन, सप्ताह..... बीत गया मानो ज़िन्दग़ी का पुरसुकून हिस्सा..... छूट गया सब कुछ..... ऋषिकेश हरिद्वार में माँ की अस्थियाँ विसर्जित कर उन्होंने खुद को भी विसर्जित कर दिया| लौटे एक महाशून्य बनकर..... अब उस शून्य में कुछ भी समाता न था|
और इन्हीं दिनों मैं मुम्बई आई पत्रकारिता के क्षेत्र में खुद को आज़माने| वे मेरे संघर्ष के दिन थे| एक स्थानीय पत्रिका की कव्हर स्टोरी तैयार करने का ज़िम्मा सम्पादक ने मुझे सौंपा था|पूरा अंक मशहूर समाज सेविका शकुन सहाय पर केन्द्रित था| शकुन के घर रोज़ ही जाना पड़ता| वे एक-एक बात बारीकी से बतातीं, पूरा सहयोग देतीं|गोविंदसहाय बैंगलोर जा चुके थे..... कुणाल घर बेचने के लिए एड़ी चोटी एक किये था ताकि बैंगलोर जाकर पूरी तरह बस सकें| उसका जॉब भी वहीँ लग गया था| मैं कुणाल के संग अक़्सर थियेटर या समँदर के किनारे खुद को पाती..... शकुन के जीवन के कितने अनखुले अध्याय वहाँ खुले थे| अब मैं बाक़ायदा घर की सदस्य मान ली गई थी| यही तो सबसे बड़ी खूबी है शकुन में..... वे सबको समँदर की लहरों की तरह अपने में समेट लेती हैं|फिर कब किसको अपनी गहराई में उतार लें और कब किनारे छिटक दें..... पता थोड़ी चलता है|
मकान बिकते-बिकते अरसा बीत गया| बीच-बीच में शकुन बैंगलोर हो आतीं| महीना दो महीना रह आतीं..... कुणाल सब सम्हाले था वहाँ का| शकुन घर के बहाने मुम्बई में जमी रहीं..... अब घर का एक कमरा बाक़ायदे नरेन्द्र के लिए रिज़र्व था| मैं जब भी जाती नरेन्द्र और शकुन को उस कमरे में पाती.....
कनु, मेरे साक्षात्कार में एक प्रश्न यह भी शामिल करो कि क्या इन्सान एक ही वक़्त में एक साथ दो को प्यार कर सकता है?”
मैंने महसूस किया..... कगार टूट रहे थे|
गोविंद ने खुद को पूरी तरह शराब में डुबो लिया था| शाम होते ही वे पैग बना लेते| कुणाल टोकता – “पापा प्लीज़..... क्यों ख़त्म कर रहे हैं खुद को?हमारे लिये ज़िन्दा रहिए| हम क्या कुछ नहीं हैं आपके?” वे गिलास सरका कर खिड़की के सींखचे पकड़ खड़े हो जाते| नहीं, ये कैद उनकी रची नहीं है| उनकी बेगुनाही को जुर्म बना दिया गया है| दिल बुरी तरह से टूटा है पर शकुन को आवाज़ तक न आई| टूटे दिल की सदाएँ उन्हें ही झकझोरती रहीं| कुणाल ने देखा उनकी आँखों का बियाबान..... अपने हाथों पैग बनाया, उनकी ओर बढ़ाया – “पापा, अपनाग़म ग़लतकरिये|”
उन्होंने कुणाल की ओर डबडबाई आँखों से देखा..... कई पल गुज़र गये| गिलास ख़ाली हो गया| कुणाल फिर भर लाया – “तुम शादी क्यों नहीं कर लेते कुणाल?”
नहीं पापा..... मुझे इस झंझट में फँसना ही नहीं है| प्यार किसी से हुआ नहीं और हो भी जाता तो..... गोविंद की पलकें झुक गईं|
सॉरी पापा.....
गोविंद तड़प उठे..... देर तक बियाबान में सूखे पत्ते खड़कते रहे| शकुन भी कहाँ रुक पाई? उसकी आँखों के अँधे सैलाब ने सब कुछ तो निगल लिया| सुनसान किनारों पर सहमे समँदर की लहरें हैं जो इस बरबादी पर सिर धुनती बार-बार किनारों से टकरा रही हैं|
डॉक्टरआए हैं..... लीवरख़राब हो गया है गोविंद का| सारी शामत पैरों पर..... चलने से लाचार हो गये हैं| बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी, कुणाल की, केतकी की बरबादी का आलम देख रहे हैं| नहींशायद वे ग़लत हैं| केतकीयू के में माइकल के साथ खुश है| बरबाद कुणाल हुआ है..... वे गुनाहगार हैं उसके|
कार्यक्रम समाप्त हो चुका है| मैं शकुन से मिलने उनके नज़दीक गई| उन्होंने मुझे गले से लगा लिया – “कैसीहो कनु?”
अच्छी हूँ दी..... गोविंदजीकैसे हैं?”
बस अभी फ्लाइट पकड़ रही हूँ बैंगलोर की| जैसे तैसे कुणाल के हवाले करके आई हूँ| एक मिनट मेरे बिना नहीं गुज़ारते|”
और वे अपनी चिरपरिचित मोहक मुस्कान सहित कार की ओर बढ़ गईं| कार में ड्राइवर ई सीट पर नरेन्द्र चौहान बैठा था| दूर तलक गोविंद सहाय के बेइन्तहा प्यार की बरबादी का समँदर ठाठें मार रहा था|
कार सर्र ऽऽ से सड़क पर बिखरे अमलतास के फूलों को कुचलती आगे बढ़ गई|
संतोष श्रीवास्तव




 प्रतिक्रियाएँ
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 रूपेन्द्र राज़ तिवारी : मंच पर संतोष जी की कहानी "अमलतास तुम फुले क्यों"मन में अनेक प्रश्नों के भंवर उठाती हुई कहानी ,संदिग्धता से पात्रा को देखती है ,उसके चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाती हुई उसकी स्वच्छंद मानसिकता पर विचारने को विवश करती है। प्रेम- विवाह के पश्चात जीवन को किन परिस्थितियों में वह समाज सेवा में संलग्न करती है प्रथमदृष्टया उसके व्यक्तित्व को कहानी में बहुत सुगढ़ता से गढ़ा गया है । किंतु जैस-े जैसे कहानी आगे बढ़ती है ,उसका चरित्र संदिग्ध होता चला जाता है । पात्र​ उसका पति जो उसे चाहता है और उसके प्रेम में अपने परिवार को छोड़ता है और निरंतर उसके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा रहता है ।बच्चों की भावनात्मक ढाल भी बनता है। प्रेम - विवाह के पश्चात अपने परिवार की तथाकथित​ क्षुब्धता को इस तरह झेलता है कि अपनी बेटी के विजातीय विवाह की पीड़ा को उसी शिद्दत से अनुभव करना चाहता है। शकुन अपने कार्य क्षेत्र को आगे बढ़ाने के लिए पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहती है ।जब कोई स्त्री अपने किसी विशेष कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ती है अक्सर देखा गया है उसे विपरीत परिस्थितियों में किसी पुरुष का साथ अच्छा है, किंतु इस साथ की परिणीति क्या होती है इस कहानी के माध्यम से कि वह समाज ,परिवार और अपनी मर्यादाओं को लांघते हुए अपने सहकर्मी को पूरी तवज्जो देती है ।जिसकी पीड़ा उसका पति अनुभव करता है , विरोध नहीं करता बल्कि उससे अलग होकर उसे पूरा मौका देता है। यहां पर पात्र बहुत ही दयनीय और कमजोर दिखाई देता है। बहुत ही मनोवैज्ञानिक तथ्यों को तलाशते हुए संतोष दी ने इस कहानी को आगे बढ़ाते हुए एक ऐसे बिंदु पर छोड़ दिया है, जिस पर कि वह कहानी पठकों के मस्तिष्क में आकार लेती है ।अमलतास के फूल बिखरे हुए लोगों के पैरों तले रौंदते हुए उसी प्रकार से अनुभव होते हैं ,जैसे सपनों की दुनिया का लुट जाना, तमन्नाओं काम उजड़ जाना। इस कहानी को बहुत ही खूबसूरती से संप्रेषित भाषा शैली एवं प्रभावपूर्ण चित्रों के माध्यम से संतोष जी ने लिखा है ।कहानी की भाषा बहुत ही सरल है किंतु कहानी के अंदर का मनोविश्लेषणात्मक तथ्य बहुत ही मजबूती से उभर कर आया है। आज भारतीय परिवेश में भले ही इसे हम नकार रहे हैं किंतु जहां तक इस परिवेश में झांक कर देखा जाए तो हम ऐसी परिस्थितियों से 2/4 अवश्य होते हैं। एक मनोविष्लेषणात्मक सशक्त कहानी के लिए संतोष दी को हार्दिक बधाई।

 
जया केतकी: हमेशा की तरह एक और बेहतरीन कहानी। किस तरह के परिवेश हमारे जीवन में आते हैं और उथल पुथल मचा देते हैं। कथ्य शैली और भाषा की परिपक्वता से परिपूर्ण कहानी।
 
 
अर्चना मिश्रा: क्या लिखती हो सन्तोष।
बहुत अच्छा विषय उठाया है।अगर पुरुष पत्नी के रहते दूसरी औरत से प्यार कर सकता है तो स्त्री क्यों नहीं। लेकिन शकुन का ये पूछना कहीं उसके मन के अंदर के अपराधबोध को उजागर करता है।
बहुत अच्छा निर्वाह किया है शब्दों के माध्यम से। लेकिन कहीं कहीं कहानी फिल्म सी लगी।
उत्सुकता बनाये रखने में कहानी पूरी तरह कामयाब रही। शीर्षक बहुत बढियाँ।
बधाई संतोष।

 
राम नगीना मौर्य्: अमलतास तुम फूले क्यों, 
कहानी में संतोष जी द्वारा प्रतीक एवं बिंबों का अद्भुत संयोजन करते, नारी और पुरुष मन के अंतर्द्वद्व को बड़ी ही खूबसूरती से उकेरा गया है। 
अनिर्णय से निर्णय की स्थिति पर पहुँचने का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती उत्कृष्ट कहानी के लिए बधाई।

 
प्रतिमा अखिलेश अर्चना जी
सच आज सन्तोष दी छा गयी हैं पटल पर।
अपनी विशेष भाषा शैली और कहानियों में नए मुद्दे उठाने के लिए ही तो वे जानी जाती हैं

 
नीलम दुग्गल: संतोष जी आपकी तरह आपकी लेखनी लाजवाब। अद्भुत चरित्रों का निर्माण, कथ्य और शिल्प वाह। यह मैने कुछ दिन पहले ही पुष्पगंधा में पढ़ी थी।
 
 
राजेन्द्र श्रीवास्तव्: आदरणीया संतोष जी की यह कहानी भी उनकी अन्य कहानियों की तरह विशेष कथानक के साथ पाठकों को ऐसी घटनाओं को समझने का एक नया विजन देती है। शीर्षक स्वयं अपने आप में पूरा सारांश कह देता है।
गोविन्द और कुणाल के चरित्र को बखूबी चित्रित किया है।
नायिका का अपने व्यवहार को उचित बताने हेतु तर्क पात्र अनुरूप हैं।
मैं स्वयं संतोष जी से सीखने का असफल प्रयास कर रहा हूं।

प्रीति खरे: उम्दा कथ्य एवं लाजवाब शिल्प के संयोजन से बिंबों के मेहराबों और कँगूरों ने कहानी के शिल्प में चार चाँद लगा दिए।एक सशक्त कहानीकार के रूप में लेखिका की कहानी पाठकों को एक छोर से दूसरे छोर तक बाँधे रखने में कामयाब साबित हुई है।आदरणीया संतोष दी में ग़ज़ब की संप्रेषणीयता है....उत्कृष्ट कहानी उपलब्ध कराने के लिए विमैमं का आभार! कहानीकार को ह्रदय से बधाई एवं शुभेच्छा


बैजनाथ शर्मा मिंटू: आदरणीया संतोष जी
आपकी सहज स्वाभाविक व सर्थक कहानी पढ़कर मन अभिभूत हो गया। आपकी कहानी समाज क एक हकीकत को वयां कर रही है। कहानी समाज को आइना दिखा रही है ।हम सब को सच स्वीकारने पर मजबूर कर रही है। कथ्य व शिल्प की दृष्टि से भी आपकी कहानी बहुत ही ही सुंदर है।
बहुत बहुत बधाई आपको
शाश्वत रतन: अमलतास तुम फूले क्यों
मेरे अनुसार कहानी का मुख्य पात्र गोविन्द सहाय है ।
क्योंकि गोविन्द समाज में कम होते हैं । शकुन और नरेंद्र तो काफी मिलेंगे । गोविन्द जैसी सोच रखने वाले व्यक्ति का चित्रण अच्छा बन पड़ा है ।
लेखिका ने शकुन को केन्द्र में रखकर कहानी लिखी है , जो एक खुले दिमाग से सोचने वाली व्यक्तिवादी महिला है, पर थोड़ा सा अपराधबोध भी है जब वह बोलती है कि एक साथ दो को प्यार कर सकता है ।
उपरोक्त वाक्य अपनी सोच की स्वीकृति भी हो सकती है ।
तीसरा पात्र कुणाल है । पुरुष अपनी पत्नी की बहन की फिसलन को सह सकता/लेता है ।किन्तु माँ उसके लिए बहुत ही आदर्श रिश्ता है उसके लिए यह स्थिति कल्पना से परे है ।उपरोक्त कहानी में भी वह टूट चुका है ।
कहानी का ताना बाना अच्छा है ।
कुल मिला कर सन्तोष जी ने जो कहना चाहा उसमे सफल हुई हैं ।
सादर 

 पूनम भार्गव ज़ाकिर: बेहतरीन कहानी
कहीं नैतिकता, अनैतिकता का बोझ नहीं, ऐसा मैं अपने जीवन में 3 लोगों को देख चुकी हूँ, शकुन जैसे तीन व्यक्तित्व भी जिन्होंने दो लोगों को कूट कूट कर प्यार भी किया, जिम्मेदारी भी निबाही, और निभा भी रहीं हैं, न कोई अपराधबोध है, होना भी क्यों चाहिए नैतिकता क्या सिर्फ औरतों के हिस्से ही है । गोविंद जैसा व्यक्तित्व भी बहुत करीब से देखा है, जो तिल तिल मरते हुए भी प्यार करना नहीं छोड़ता, पर इस कहानी में गोविंद कमज़ोर लाचार स्थिति में दिखाई दिया ।
ये सवाल कि "क्या इंसान एक ही वक़्त में एक साथ दो को।प्यार कर सकता है '
कोई भी स्त्री इस बात को स्वीकार न करे पर यह सम्भव है दो व्यक्तियों से एक ही समय में समान रूप से प्यार करना जैसे माँ अपने दो बच्चों को समान रूप से प्यार करती है । इस बात पर एक से प्लेटोनिक स्तर पर तो ऐसा स्वीकार है पर हमारा समाज स्त्री के द्वारा दो पुरुषों से शारिरिक सम्बन्धों  के स्तर पर इस बात को स्वीकार नहीं कर पाता, पुरुष के मामले में छूट होती है ।
बेहतरीन चित्रण मनोभावों का । ये कहानी मनोवैज्ञानिक स्तर पर उत्कृष्ट कोटि की है । इस विषय पर अनेको कहानी हैं, जो अंत तक आते आते किसी एक कि ग़लती पर खत्म होती है, पर यह कहानी रिश्तों का विस्तृत फ़लक निर्धारित करती है ।

 
रत्ना पाँडे: परंपरागत भारतीय प्रेम के बिल्कुल उलट पर बिल्कुल अस्वाभाविक नहीं सन्तोष जी की कहानी केपात्र इसी सभ्य समाज में मिल जाएंगे
कहानी पूरे समय पाठक को बाँधे रखती है पर पुरुष के साथ सम्बन्धों के चित्रण में कहीं भी अश्लीलता की तथाकथित छूट नहीं ली गई है यह और भी ध्यान देने योग्य बात है जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए
एक बात और यदि कहानी में नायक का चरित्र ऐसा होता तो ज्यादा हल्ला नहीं होता पर नायिका के परपुरुष संबंध को छोडिए आकर्षण को भी स्वीकार नहीं किया जाता वास्तविक जीवन में पर एक उम्दा बोल्ड कहानी पढने को मिली जिसके लिए सन्तोष जी को धन्यवाद देती हूँ
और अंत में कार का अमलतास के फूलों को कुचलते हुए जाना गजब संतोष जी के शीर्षक अक्सर बहुत आकर्षक होते हैं बच के कहाँ जाओगे बच्चू ? की तर्ज पर पढना तो पडेगा ही और उसके लिए डूबकर पढना होगा पता करने के लिए कि आखिर अमलतास क्यों फूले ?

नीता श्रीवास्तव: अमलतास तुम फूले क्यों ' सशक्त शीर्षक लिये एक भावनात्मक कहानी पढने को मिली सुंदर शब्दशिल्प ने कहानी को एक सांस मे पढने को बाध्य किया और भाषा का प्रवाह अपने संग पाठक को बांध कर रखने मे पूर्णतया सफल ,जो सन्तोष जी की लेखनी का मुख्य गुण है |
शकुन का किरदार मेरी समझ से परे रहा | इसके अलावा कई बाते अनसुलझी लगीं जेसे गोविंद सेबेरुखी की कोई वजह समझ नही आई फ़िर अनु से ये सवाल कि 'क्या एक साथ दो लोगों से प्यार किया जा सकता है ' जबकि 'प्यार ' कोई कानूनी प्रक्रिया नही कि कि किसी से इजाजत ले कर किया जाये और वह भी तब जबकि उसे नरेन्द्र से प्यार हो जाता है |
शकुन और बेटी के संबंध मे गोविंद की चुप्पी गोविंद के व्यक्तित्व पर भी सवाल खडा करती है |
हां लेकिन दूसरे ही पल शकुन के अंदर झांकने पर एसा लगता है कि नरेन्द्र की और उसका झुकाव होने पर भी गोविंद से विमुख होना उसे खुद भी एकअपराध बोध से ग्रसित कर रहा था |कुलमिला कर ये गोविंद की कहानी है जहां उसके साथ निर्दोष कुणाल के पात्र का निर्वहन सराहनीय है |
कुछ अलग इसलिये भी लगा कि हमे अधिकांश त: पुरुषों की बेवफाई झेलती स्त्री का दर्द ही पढने मिलता है इसलिये गोविंद की खामोशी और सहन शीलता नागवार सी लगी |
लेकिन कुछ अलग मनोविज्ञान से रचने की कला ही तो है सन्तोष दी मे ,जिसे सब अपने ढंग से सोचकर तह तक जाने की कोशिश मे है |
बहुत बधाई दी 

संतोष झाँझीi: अमलतास तुम फूले क्यो
बहुत अच्छी और सच्ची कहानी।मन को छू गई ।संतोष श्री जी बहुत बेहतरीन कहानी के लिये बहुत बधाई । सौ मे से दस परिवारो मे घटती कथा है ये कही कही पात्र भर बदलते है ।कूणाल का चरित्र बहुत अच्छा ।बेटी का विद्रोही स्वरूप अपनी जगह है ।कई कथाओ मे बेटी पिसती है बेटा पल्ला झाड निकल लेता है।एकबार फिर बधाई।बहुत अच्छी कहानी के लिये।

 
बृज मोहन सिंह: आदरणीय संतोष जी की यह कहानी बेजोड है । लेखिका पूरी कहानी में सभी पात्रों के साथ है और किसी के साथ भी नहीं है । यही इस कहानी की सफलता है । यह प्रेम की कहानी है तो प्रेम के बाहर निकल अपने लिए जीने की भी कहानी है ।यह नयी पीढी के प्रेम विवाह को स्वीकार और सहानुभूति से देखने की बात करती है ।बधाई और अभिनंदन संतोष जी को ।
ब्रज मोहन सिंह: सामान्य रूप से एक सशक्त कथानक को पटल पर अनवरत प्रवाह के साथ "अमलतास तुम फुले क्यों" बहुत ही सुंदर भावपूर्ण कहानी प्रस्तुत की संतोष जी बहुत बहुत बधाई आपको और आपकी लेखनी को

अर्पणा शर्मा: आदरणीया संतोष जी की कहानी प्रेम की विड़ंबना को गहराई से समेटे है और आदि से अंत तक पाठक को बाँधे रखती है। प्रेम में स्वपरिजनों की नाराज़गी झेलकर भी गहन समर्पण के बाद, उसी प्रेम पात्र के जरिए छले जाने की टूटन को गोविंद के माध्यम दर्शाने में लेखिका सफल रही हैं । शकुन जैसे व्यक्तित्व जो महत्वाकांक्षा के चलते अपने ही जीवन की नींव समान प्रेम से पोषित गोविंद की भावनाओं और सच्चे समर्पण को कुचलकर केवल निज सुख को ही वरीयता देते हैं , पाठक के मन में स्वयं के प्रति जुगुप्सा उत्पन्न करते हैं। यह लेखिका की सफलता ही है कि कहानी से पाठक स्वयं का गहराई से तादात्म्य स्थापित कर सभी पात्रों को जीने लगता है और कहानी का अंत मन को भिगो जाता है। हमारे आसपास भी यदाकदा शकुन जैसे चरित्र देखने को मिलते हैं ।
एक अंत्यंत प्रभावी कहानी के लिए प्रिय संतोष दी को बहुत बधाई ।
उनकी लेखनी सतत् सृजनरत् रहे और ऐसी ही अप्रतिम रचनाओं से हमें उपकृत करती रहें यही मेरी स्नेहिल शुभकामनाएँ हैं 

मनीष वैद्य: संतोष जी की कहानी सच में मार्मिक है। सीधे दिल को छूती हुई। नए समाज के रिश्तों में आई दरारों को तथा हमारे समय की विडम्बनाओं को यह नब्ज से पकड़ती है।इनमें शकुन और नरेंद्र को छोड़ बाकी सारे किरदार अपने सामान्य जीवन से बेदखल कर दिए गए हैं। नए समाज की गहरी बारीक समझ, मनोविज्ञान की गुत्थियों और उनके अन्तर्सम्बन्ध इसे बड़ा बनाते हैं।इसकी भाषा, शिल्प और कहन का अंदाज़ मारक है और अंत पाठक के मन में देर तक गूँजता रहता है। मुझे कहानी में कई बार अपने आसपास के किरदार चहलकदमी करते नजर आए।शकुन के प्रति एक दो मौके पर वितृष्णा के भाव भी आते हैं पर स्त्री के मन मष्तिष्क को समझना आसान नहीं। शायद इन सबके पीछे भी कोई और कारण या मजबूरी रही होगी। स्त्री कभी मात्र आनंद के लिए इस तरह नहीं भटकती।महत्वाकांक्षा तो दिख ही रही है, दाएं बाएं कुछ और भी हो सकता है।मुझे गोविन्द से भी बड़ा यहाँ कुणाल का चरित्र लगता है। गोविंद का प्रेम उसके लिए बेडी हो सकता है पर कुणाल तो खुद सब कुछ छोड़कर अपने कर्तव्य निभाता है।
कहानी भीतर तक भीगोती है।
संतोष जी को बधाई तथा मंच के प्रति आभार
 
भूपेंद्र सिंह बेगाना उच्च कोटि की लेखन शैली ने कहानी को बहुत प्रभावी बना दिया है।बहुत सुंदर कहानी।संतोष दी को बहुत बधाई हो।आपकी कहानियों से हमें सीखने को मिलता है।

कुमार सुशांत: संतोष श्रीवास्तव की कहानी हमेशा पाठक को एक अलग दुनिया मे ले जाती है।कहानी का विषय अन्य कहानीकारों से हटकर होता है । यह कहानी पढ़ने से ज्यादा सोचने वाली कहानी हैं।कहानी बॉम्बे के वातावरण में लिखी गई है तथा सामाजिक मूल्य संक्रमण को दर्शाती है। यह कहानी दो पीढ़ी के मूल्यों के टकराव और संक्रमण की कहानी है। मूल्यों के संक्रमण पर प्रबुद्ध लोगों को सोचना चाहिए। उन्हें मूल्य संक्रमण के कारणों के तह में जाना चाहिए। उन्हें व्यक्तिक मूल्य और सामाजिक मूल्यों में आ रहे बदलाव पर विचार करना चाहिए।यह कहानी कहीं न कहीं विचार करने पर लोगों को विवश करती है।इसीलिए मैं इस कहानी को मैं सोचने वाली कहानी कहा हूँ। मेरे समझ में यह कहानी साधारण पाठक के लिए उतने महत्व की नहीं है जितना आलोचकों और प्रबुद्ध लोगों के लिए है।

 : प्रतिमा अखिलेश संवेदनाओं से परिपूर्ण प्रेम वेदनाओं का ताना बाना बुनती एक स्त्री के नए रूप नए विचार का नेतृत्व करती एक पुरुष के सच्चे प्रेम में डूबी करुण कहानी।
समाज में घटित किसी एक घटना को सबके समुख अपनी सोच और सुंदर भाषा शैली से चित्रित करने का कला कौशल सिर्फ सन्तोष दी की लेखनी में ही हो सकता है।
सोचने पर विवश करती एक क्रांति लातीकहानी पर दी को बहुत बहुत बधाई।
पूर्णिमा ढिल्लन: आदरणीय संतोष जी माननीय रिश्तो को गहराई से छुट्टी बहुत ही मार्मिक कहानी के लिए बधाई बेवफाई की डगर पर चलते रिश्ते परिवार को किस तरह तहस-नहस कर देते हैं इसे बहुत ही संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है ngo चलाना और समाज सेवा का भाव रखना जहा उनके व्यक्तित्व को प्रभावी बनाता है वही चरित्र की कमजोरी के रहते अपने ही पति को पीड़ा पहुंचाना उनके दोहरे चरित्र को दर्शाता है धन्यवाद

 निशा चँद्रा: अमलतास तुम फूले क्यों-- नाम ही कुछ देर कल्पना लोक में विचरने को छोड देता है, जहाँ पीले फूलों से लदा अमलतास खडा है, क्या लिखूँ ,कुछ सूझ नहीं रहा है,speechless. बहुत दिल को छू लेने वाली संवेदनाएं.किसी से टूटकर प्यार करना फिर किसी और से भी उतना ही प्यार हो जाना, नारी मन की बडी दुविधा पूर्ण स्थिति है, जिसे लेखिका ने बहुत कुशलता से बुना है.समुद्र के मन में होता हुआ मंथन कोई नहीं देख पाता है,संतोष जी की कलम से निकलते शब्द ऐसे हैं जैसे सुनार बहुत से मोती गहनों में जड देता है, सुन्दर कहानी देने के लिए संतोष जी को साधुवाद 
अवधेश प्रीत ' क्या इन्सान एक ही वक्त में एक साथ दो को प्यार कर सकता है ? ' यह एक ऐसा सवाल है जो हमेशा अनुत्तरित रहा है ।यक्षप्रश्ननुमा । खास तौर पर भारतीय समाज और साहित्य दोनो में लेकिन साहित्य बार बार ऐसे सवालों से टकराता है । संतोष जी की यह कहानी उसी सवाल और कथित नैतिकता से टकराती है । कहानी कोई वितंडा नहीं खड़ा करती । कहानी में न शकुन सहाय को कोई अपराधबोध है , न उनके प्रेमी पति गोविंद उसके विरुद्ध खड़े होते हैं। वह आत्मघाती होते जाते हैं। लेकिन नफरत नहीं करते । तो यह भी शकुन के प्रति उनका प्रेम ही है। लाइव टेलीकाॅस्ट देखने की जिद इसी ओर एक संकेत है । यह कहानी न शकुन की ओर से कोई सफाई पेश करती है , न ही शकुन को कटघरे में खड़ी करती है । यहां नैतिकता- अनैतिकता जैसे प्रश्नों की टकराहट नहीं है । यह एक बड़े कैनवास की कहानी है , जो बताती है कि प्रेम अपना स्पेस ढूंढ़ लेता है । ये अलग बात है कि उसे कोई शकुन सहाय की तरह ग्रहण करता है या निषेध करता है। निषेध कठिन लेकिन आसान रास्ता है और सामान्यत: सबसे मुफीद जवाब भी । लेकिन यह कहानी , ऐसे जवाब के विरुद्ध , एक सवाल है। शायद , इसका जवाब बहुत सरल और निकटवर्ती न हो । संतोष जी एक सधी हुई समर्थ लेखिका हैं। भाषा के साथ रचनात्मक सलाहियत वह खूब जानती हैं। ऐसी काॅंप्लीकेटेड कहानी के लिए उन्होंने जिस संयमित और प्रांजल भाषा का इस्तेमाल किया है, वह कहानी को न प्रवाहमय बनाती है, बल्कि एक चाक्षुष अनुभव में भी तब्दील करती है । यह न तो गोविंद के बतौर एक कमज़ोर इंसान होने की कहानी है, न शकुन के बेवफा होने की । यह कहानी प्रेम के ,मानवीय मन के संश्लिष्ट बनावट की कहानी है।
एक बेहतरीन कहानी , अपने कथ्य में बोल्ड कहानी के लिए संतोष जी को बहुत बधाई।

 डॉ राजम नटराजन अमलतास... कहानी मुझे एक सहज ही महत्वाकांक्षी स्त्री और दुविधा में पड़े उसके पति की कहानी लगती है। स्त्री में न दुविधा है, न पछतावा है, सो स्वाभाविक ही वह टूटती भी नहीं है।नाटक, सिनेमा और अब पोलिटिक्स और कॉरपोरेट जगत की कामयाबी के सोपान चढ़ती लगभग सभी औरतों की यही है।पति या तो शून्य हो जाता है या भाग जाता है! पर, समाजशास्त्रीय दृष्टि से सिर्फ़ पुरुष क्यों टूटता है ऐसे समीकरणों में? क्योंकि पुरुष को युग-युगांतरों से घर-बाहर यही संस्कार मिले हैं कि वही घर का मुखिया है,परिवार की सामाजिक पहचान उसी से है,होनी चाहिए। कहानी की नायिका अनजान तरीके से ही सही, पर अपने मिलनसार/प्रभावशाली/आकर्षक व्यक्तित्व का प्रयोग करती है, उन्हें 'फाँसने' के लिए नहीं पर कामयाबी इंसान को अंधा-बहरा कर देती है,जो विडंबनामय सच बेटे को दिख जाता है वह पत्नी को नहीं दिखता और सो भी ऐसी पत्नी जो कभी 'प्रेमिका' थी! दर्दनाक कहानी, इमारत को खंडहर में तब्दील होते देखना.. लाचारी से कथा-नायक की तरह...
 
गिरीश पंकज: सन्तोष जी कहानियां बड़ी जीवन्त होती हैं। लगता है जैसे सामने सब कुछ घट रहा हो। उसी कड़ी में आज की कहानी है। मानव मन को रेखांकित करती कहानी। बधाई।

सरला शर्मा: अमलतास तुम फूले क्यों ?
सार्थक शीर्षक है .। अमलतास का फूलना ....प्राकृतिक है उतना ही जितना मानव मन में प्रेम का उगना , फूलना ..। कहानी की विशेषता यह कि शकुन ने अमलतास को सहजता पूर्वक अपने आँचल में समेट लिया
गोविन्द का पुरुष मन अपने एकाधिकार को खंडित होते देख टूट जाता है । मार्मिकता तब जन्म लेती है जब शकुन गोविन्द के बिखराव को भी सहेजती है नरेंद्र चौहान के प्रेम को भी मान देती है । पारम्परिक प्रेमकथा को ललकारती यह कहानी अनूठी है ,प्रेम की नई परिभाषा गढ़ती है । भाषा अभिव्ययक्ति को कदम कदम पर संभालती चलती है । नई सोच की यह कहानी संतोष जी के नए भाव बोध और परम्परा को तोड़ती चलती है पर असहज कहीं नहीं लगती । मैं संतोष जी को इस कहानी के लिए बधाई देती हूँ ....अमलतास फूलते रहे ....।

आशा रावत: संतोष जी की कहानी पढ़कर अभिभूत हो गया मन।सार्थक और स्वाभाविक कथानक है इसका।प्यार प्यार होता है, नकि वैध या अवैध।यही वजह है कि नायिका शकुन से नफ़रत नहीं होती।गोविंद से सहानुभूति होने के बावजूद।बहुत सशक्त तरीके से कथ्य और शिल्प का तानाबाना बुना गया है।इतनी अच्छी रचना के लिए संतोष जी को हार्दिक बधाई।

 
अंजु शर्मा: मैं जब जब संतोष दी को पढ़ा है, शब्दों के सतत प्रवाह और सुंदर भाषा के बहाव में जैसे बहती चली गई हूँ। वहां भी जहाँ कथ्य ठिठकाता है प्रवाह ने रुकने ठिठकने का मौका ही न दिया। इस कहानी के साथ भी यही अनुभूत हुआ। जीवन में दो लोगों से एक साथ प्रेम होने पर किसी एक के साथ अन्याय जरूर होगा और यहां गोविंद के साथ हुआ। यह गोविन्द की कहानी है और पूरी कहानी में मैं शकुन को पढ़ने की।कोशिश करती रही। नरेंद्र और शकुन जिस रास्ते पर आगे बढ़े वहां गोविंद इतने महत्वहीन या इतने कमज़ोर कैसे पड़ गए कि शकुन को रोक न सके या शकुन के संवेदनहीनता का कारण क्या केवल महत्वकांक्षा भर थी? यदि वे महत्वाकांक्षी थीं तो गोविन्द को क्यों चुना या फिर गलती मान इसे सुधारने को उद्धत हुई, ऐसे कई सवाल ऐसे पीछे छूट गए जैसे लहरें किनारों पर निशान छोड़ जाती हैं। बहरहाल ये सवाल ही कहानी की सफलता भी हैं जो पाठ के बाद एक और पुनःपाठ की ओर बढ़ाते हैं। बधाई संतोष दी

:सुषमा सिंह गज़ब की पकड़ है संतोष जी, कथा के प्रवाह पर, पात्रों की हर रूपरेखा पर, संवादों के चुटीलेपन पर, चरित्रों के रेशे-रेशे पर। कुछ तो ऐसा लिख जाती हैं कि पीछे लौट कर दुबारा पढ़ने का मन होता है। भाषा में प्रवाह है, बिम्बात्मकता है। शैली मनमोहक है ।हिन्दी की संग्रहणीय कहानियों में एक है यह कहानी। शकुन की बेवफाई और गोविन्द की टूटन ने जो ताना-बाना बुना है, उसके मकड़जाल में बेचारा कुणाल फंस कर रह गया है । दो पुरुषों से एक साथ प्यार करने वाली बात यहाँ गले नहीं उतर रही क्योंकि लग नहीं रहा कि शकुन को गोविन्द की कोई चिन्ता है। वह तो नरेन्द्र के सम्मोहन की गिरफ्त में है। तभी तो गाड़ी अमलतासों को कुचलती हुई चली गयी।

रानी मोटवानी: "कार.......अमलतास के फूलों को कुचलती आगे बढ़ गई।" अंतिम वाक्य पढ़कर मेरी ऑँखें नम हो गईं।
गोविंद का टूटना उनका बेटा कृणाल महसूस कर रहा है लेकिन शकुन....उसे कोई अपराध बोध नहीं कहानी और कहानी का शीर्षक दोनों बहुत पसंद आए।

 
वर्षा रावल समाज का आइना होती है कहानियाँ ,कहानी का हर पात्र सहज है ....स्त्री पुरुष दोनों को ही प्रेम हो सकता है साथी के होते हुए भी ,इस बात को सहजता से कह देना सन्तोष दी के ही बस की बात है ...पत्नी को भरपूर प्रेम करते हुए भी पुरुष किसी से प्रेम कर पाता है तो पति से प्रेम करते हुए भी स्त्री किसी से प्रेम कर सकती है ये दिखा देना बड़ी बात है,कहानी में गोविन्द हकदार था कहने को पर उसने निशब्द रहकर सिर्फ प्रेम किया , न शकुन को धमकी दी, न डांटा, न अपशब्द कहे ये न केवल परिपक्व प्रेम की निशानी है बल्कि व्यक्ति की सुलझी मानसिकता का भी द्योतक है.....उनका ये मान लेना कि मुझसे ही कोई कोना रह गया होगा उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करता है । कथा के अनुसार शीर्षक सर्वथा उपयुक्त ...अमलतास तुम फ़ूले क्यों ....शब्द नही दी आपकी कहानी के लिए, ढेर सारी बधाइयाँ आपको
 
सीमा श्रीवास्तव्: बहुत ही भावपू्र्ण कहानी पूरी तरह बंधी हुई | एक एक शब्द चुनकर बुना गया भाषा काअनवरत् प्रवाह | पढ़ना शुरु की तो सीधे समाप्ति पर ही नजर हट सकी | ऐसा कथ्य जो सबको अपने में डुबो ले | पाञों की जीवंतता ,संवादो की कसावट , सशक्त अभिव्यक्ति ने कहानी को प्रभावी और मनोरम बना दिया | प्यारी संतोष दी को बहुत बहुत बधाई |
डॉ सीमा रायपुर

पम्मी सडाना: आपने बिल्कुल ठीक कहा प्रतिमा जी कि आज सब स्वयं खिंचे आयेंगे अमलतास की ख़ुश्बू से... कहानी शुरू जो की, तो एक साँस में पूरी पढ़ती चली गई ! ज़िन्दगी के हर पड़ाव से गुज़रती गई। इतनी दिल को छूने वाली कहानी, कि शब्दों की कमी पड़ गई ! क्या कहूँ संतोष दीदी ? मेरी बधाई की आप मोहताज नहीं। फिर भी इतनी अच्छी कहानी से हमें रूबरू कराने के लिए हार्दिक बधाई 
अलका अग्रवाल: कहते हैं कि एक स्त्री बेबस, बेचारी, लाचार होती है पर संतोष दीदी की कहानी इसे गलत सिद्ध करते हुए यह बताने में शत-प्रतिशत सफल हुई है कि एक स्त्री के प्रेम में पड़कर एक पुरूष किस हद तक बेबस, बेचारा और लाचार हो सकता है एक जगह गुण और सूत्र आया है मेरी समझ से वहां पर गुणसूत्र होना चाहिए मेरी नजर में गोविंद का पात्र धन्य भी है और कमजोर भी क्योकि वह सारी जिंदगी एक बालक रूप और प्रेमी रूप में जीता रहा मगर कभी भी अपने पति और पिता रूप का प्रयोग नहीं कर पाया केतकी के विवाह करने के बाद एक बार उसके मन में पिता का दर्द उठा जरूर पर जब उसे इतना ही एहसास हो पाया कि यही दशा होती है एक पिता की जब बच्चे अपनी मर्जी में अपने माता-पिता को शामिल नहीं करते सब कुल मिलाकर किसी के हृदय के अमलतास तो जरूर कुचल गए हैं बिना कोई शिकायत किए